नित्यानन्द, गौरांग व हरे
कृष्ण महामंत्र जप
The
Japa Chanting of Nityananda, Gauranga and Hare Krishna Mahamantra
त्रिदण्डि भक्तिरत्न साधु
स्वामी द्वारा रचित
१.
श्रीचैतन्य चरितामृत में ‘गौरांग’ मंत्र श्रील शिवानन्द सेन के जपमंत्र के रूप
में वर्णित है, तथा इस मंत्र की जपविधि श्रील भक्तिविनोद
ठाकुर तथा श्रील स्वामी प्रभुपाद द्वारा इस प्रकार से अधिकृत की गयी है:
“आपने बोलान मोरे इहा यदि जानि, आमार इष्ट-मंत्र जानि’ कहेन आपनि”
“गौर-गोपाल मंत्र तोमार चारि अक्षर, अविश्वास छाड़, येइ करियाछ अंतर”
(श्रीचैतन्य चरितामृत ३.२.२४,३१)
(२४) श्रील शिवानन्द सेन (कृष्ण लीला में वीरादूती गोपी) ने इस प्रकार विचार किया – “यदि स्वयं श्रील नकुल ब्रह्मचारी मेरे समक्ष, मेरे इष्ट-जपमंत्र को अभिव्यक्त कर देंगे, तभी मैं इस विषय में आश्वस्त होऊंगा की भगवान् चैतन्य महाप्रभु स्वयं इनके देह में प्रतिष्ठित हुए हैं|” (३१) उनके इस हृदयगत विचार को लक्ष्य करके श्रील नकुल ब्रह्मचारी ने उन्हें अपने समीप बुलाया और कहा – “आप सदैव चार-अक्षर युक्त ‘गौर-गोपाल’ मंत्र ('गौरांग') का जप करते हैं| अतः अब आप भगवान् के मुझ में आवेश से सम्बंधित संदेह का सम्पूर्णत: परित्याग कर दें|”
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा अमृत-प्रवाह-भाष्य (बांगला): “गौर-गोपाल मंत्र गौरवादि गण ‘गौरांग’ नामे, चतुर-अक्षर गौर-मंत्र के उद्देश्य करेन; केवल कृष्णवादी गण एइ, गौर-गोपाल मंत्र शब्दे राधा-कृष्णेर, चतुर-अक्षर मंत्र के उद्देश्य करेन|”
हिंदी अनुवाद – “समस्त गौरवादी गण, अर्थात् गौरांग महाप्रभु के भक्त गौर-मंत्र को अर्थात् उनके चार-अक्षर युक्त नाम ‘गौरांग’ को ही गौर-गोपाल मंत्र के रूप में स्वीकार करते हैं| किन्तु कृष्णवादी गण, अर्थात् कृष्ण के एकनिष्ठ भक्त ‘राधा-कृष्ण’ को ही गौर-गोपाल मंत्र के रूप में स्वीकार करते हैं|
श्रील ए॰ सी॰ भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा व्याख्या : “श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने अमृत-प्रवाह-भाष्य में गौर-गोपाल मंत्र के विषय में विवरण दिया है| श्री गौरसुन्दर के उपासक चार अक्षर युक्त ‘गौ-र-अं-ग’ को ही गौर-मंत्र स्वीकार करते हैं, किन्तु राधा-कृष्ण के शुद्धभक्त चार अक्षर युक्त ‘रा-धा-कृ-ष्ण’ को ही गौर-गोपाल-मंत्र स्वीकार करते हैं| वस्तुत: वैष्णवगण श्री चैतन्य महाप्रभु तथा राधा-कृष्ण को परस्पर अविभिन्न मानते हैं (श्रीकृष्णचैतन्य, राधा-कृष्ण नहे अन्य)| अत: ‘गौरांग’ मंत्र जप करने वाला भक्त एवं राधा-कृष्ण के नामों का जप करने वाला भक्त वस्तुतः एक ही स्तर पर स्थित हैं|
श्रील भक्तिरत्न साधु स्वामी द्वारा व्याख्या : ‘इष्ट मंत्र तोमार’ शब्दसमूह - ‘आपका जप मंत्र’ – इस अर्थ को लक्षित करते हैं| अत: यह स्पष्ट है की श्रील शिवानन्द सेन गौरांग-मंत्र का जप उपांशु अथवा मानसिक रूप से माला पर कर रहे थे| यदि वे गौरांग नाम को केवल कीर्तन में उच्चस्वर से ही गा रहे होते, तो सर्व-उपस्थित भक्तसमूह को इस विषय में पहले से ही विदित होता, अत: उस परिस्थिति में उनका श्रील नकुल ब्रह्मचारी से प्रश्न सर्वथा अनौचित्यपूर्ण था| पारिभाषिक परिप्रेक्ष्य से भी ‘इष्ट-मंत्र’ दीक्षाविधि द्वारा लभ्य होता है, तथा प्राय: जपरूप में ही सेवित होता है| अतः तुलसी माला पर गौरांग-मंत्र की जपक्रिया तथा दीक्षा-प्रक्रिया, सैद्धांतिक रूप से पूर्णतः प्रमाणित विधि है, फलत: यह विधि समस्त गौरवादी गण अथवा गौड़ीय वैष्णवगण द्वारा स्वीकृत होनी चाहिए (चाहे वे स्वयं इस मंत्र का जप करना चाहते हैं या नहीं), क्योंकि यह श्रील शिवानन्द सेन तथा अन्यान्य आचार्यगण का जप्य इष्ट-मंत्र है| अत: जब श्रील स्वामी प्रभुपाद गौरांग मंत्र को - “स्वीकार”, “जप” तथा “एक स्तर” - शब्दोक्त करते हैं, तो वह निस्संदेह इस मंत्र का जप तथा कीर्तन – दोनों विधियों को ही प्रमाणित करते हैं (केवल कीर्तन को नहीं)| इस तथ्य की पुष्टि उनके द्वारा मार्च १४, १९७५ को एक ईरानी विद्यार्थी के ‘गौरांग’ मंत्रजप-क्रिया की औचित्य-स्वीकारोक्ति के रूप में भी हुई है| इस मंत्र का जप तथा कीर्तन, हरेकृष्ण-महामंत्र जप-कीर्तन का वर्जन करके नहीं, अपितु उससे संयुक्त होना चाहिए| अत: श्रील प्रभुपाद के किसी भी अनुयायी को हरेकृष्ण-महामंत्र के साथ गौरांग मंत्रजप करने वाले व्यक्ति को वर्जित अथवा अप्रोत्साहित नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनहोंने स्वयं कहा है की गौरांग-मंत्र जप हरेकृष्ण-महामंत्र जप के समान स्तर पर है|
यदि कोई कहे की कृष्ण नाम तुलसी माला पर जप्य है, किन्तु गौरांग मंत्र नहीं, तो ऐसा करने से वह व्यक्ति दोनों नामस्वरूप तथा भगवत्स्वरुप में भेददृष्टि करता है| जैव-धर्म के अनुसार ऐसा व्यक्ति कलि का चेला है| तुलसी-पत्र समान रूप से कृष्ण तथा गौरांग – दोनों को अर्पित किया जाता है| अत: दोनों भगवन्नाम तुलसी माला पर जप्य क्यों नहीं हो सकते? तुलसी-देवी गौरांग-दासी भी हैं| जब गौरांग महाप्रभु के स्वांशावतार- उदाहरणार्थ राम, नृसिंह इत्यादि, के भी अपने पृथक जप-मंत्र हैं, तो फिर मूल-स्वयंरूप गौरांग महाप्रभु का जपमंत्र क्यों नहीं हो सकता है? जैव-धर्म के अनुसार जिस प्रकार से केवल-कृष्णवादी भक्तों की जप्य-वस्तु कृष्णनाम ही है, उसी प्रकार से कुछ जीवों का सिद्धस्वरुप गोलोक के नवद्वीप-प्रकोष्ठ की गौरांग-लीला में भी होता है| निष्कर्षतः, वह जीव प्रमुख्यत: गौरांग नाम को ही जप्य-मंत्र के रूप में सेवन करते है| जैव-धर्म भी इस तथ्य की पुष्टि करता है की गौड़ीय वैष्णव आचार्यगण नित्य-लीला में दो स्वरूपों से गौरपीठ व कृष्णपीठ में प्रविष्ट होते हैं, जहाँ पर वे क्रमश: गौरांग-नाम तथा हरिनाम के जप द्वारा प्रभु की आराधना करते हैं|
गौरांग महाप्रभु चै॰भा॰ ३.४.१२६ में कहते हैं, “सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम”, अर्थात् पृथ्वी-पर्यंत प्रत्येक नगर व ग्राम में मेरे गौरांग नाम का प्रचार होगा| किन्तु जब तक मनुष्य इसे प्रतिदिन जप-रूप में सेवन नहीं करेंगे, तो इस नाम का प्रचार इस प्रकार कैसे संभव होगा? यदा-कदा संकीर्तन में गौरांग नाम उच्चारित करना और प्रतिदिन निश्चित संख्या में जप करना – यह दोनों समतुल्य नहीं है| कलियुग का पूर्वानुमानित १०,००० संवत्सर-अवधि का स्वर्णिम-काल अपने उच्चतम शिखर पर आरूढ़ - गौरांग-नाम जप तथा कीर्तन – दोनों ही के संयोग से होगा, क्योंकि गौरांग-नाम समस्त कलिग्रस्त जीवों की सम्यक रूप से अनर्थ-निवृत्ति कर, उन्हें विशुद्धप्रेम से हरेकृष्ण-महामंत्र के जप करने का अधिकार प्रदान करता है|
२
गौरांग मंत्र तथा पञ्च-तत्त्व मंत्र
पञ्च-तत्त्व
मंत्र आधिकारिक तौर पर जप-मंत्र नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई प्रमाण दृष्टिगोचर नहीं होता की हमारे
किसी भी आचार्य द्वारा यह जपरूप में सेवित हुआ हो| अतः श्रील
स्वामी प्रभुपाद ने समय-समय पर इसे जपमंत्र-रूप में वर्जित करके केवल कीर्तन में,
तथा जप से पहले ही इसका उच्चारण करने को कहा था| गौरांग-मंत्र जापक भी पञ्च-तत्त्व मंत्र इसी प्रकार से लेते हैं| किन्तु यह जप-वर्जनता चार-अक्षर युक्त गौरांग (गौर-गोपाल) मंत्र पर
लागू नहीं होती, जो की चैतन्य चरितामृत के अनुसार
विभिन्न आचार्यगण द्वारा तुलसी-माला पर जप्य एक प्रामाणिक मंत्र है| तथ्यत: श्रील स्वामी प्रभुपाद ने स्वयं चै॰च॰ ३.२.३१ में इस के जप की
संस्तुति यह कह कर की है की गौरांग-मंत्र जापक तथा हरेकृष्ण-महामंत्र जापक वस्तुत:
समान स्तर पर हैं| ऐसा होते हुए भी, हम पूर्ण रूप से उन भक्तों को स्वीकार करते एवं सम्मान प्रदान
करते हैं जो गौरांग-मंत्रजप नहीं करते, क्योंकि वे
पञ्च-तत्त्व मंत्र, कीर्तन तथा गौड़ीय-भजन गान इत्यादि के समय
तो गौरांग-नाम का उच्चारण करते ही हैं|
यद्यपि
श्रील स्वामी प्रभुपाद कहते हैं की पञ्च-तत्त्व मंत्र जप-रूप से तथा कीर्तन में भी
३ बार से अधिक सेवित नहीं होना चाहिए, तथापि चै॰च॰ १.८.३१ में वे स्वयं ३ बार गौरांग मंत्र का अनुमोदन
इस प्रकार करते हैं: “प्रारम्भिक अवस्था में भक्त को नित्य
नियमपूर्वक श्रीगौरसुन्दर के नाम का जप करना चाहिए, और फिर नित्यानन्द प्रभु के नाम का जप करना चाहिए..”, ”...श्रीचैतन्य महाप्रभु के नाम का जप हरेकृष्ण-महामंत्र जप की अपेक्षाकृत अधिक
महत्त्वपूर्ण है” तथा “आध्यात्मिक
अनुभूति की दृष्टि से अपरिपक्व किसी भी नवीन छात्र को श्रीराधाकृष्ण उपासना अथवा
हरेकृष्ण-महामंत्र जप में लिप्त नहीं होना चाहिए| ऐसा करने
पर भी उसे वांछित फल की उपलब्धि नहीं होगी| अतः ऐसे मनुष्य को
निताइ गौर नाम जप करना चाहिए तथा उनकी उपासना मिथ्या प्रतिष्ठा से रहित
होकर करनी चाहिए|”
कुछ व्यक्ति
इस प्रकार कहते हैं की उपरोक्त वाक्य-समूह पञ्च-तत्व मंत्र के परिप्रेक्ष्य में
कहे गए हैं, क्योंकि वे
अपनी व्याख्या का अंत पञ्च-तत्त्व मंत्र से ही करते हैं| किन्तु
जैसा की हमें विदित है की उन्होंने पञ्च-तत्त्व मंत्र को नियमपूर्वक जप में
प्रयुक्त करने के लिए स्पष्टत: वर्जित किया है, तो फिर
उपरोक्त वाक्यांश किस प्रकार पञ्च-तत्व मंत्र पर लागू हो सकते हैं?
भला दिन में केवल यदा कदा उच्चारण को “नित्य-नियमपूर्वक” किस आधार पर कहा जा
सकता है, जबकि उनके अनुसार महामंत्र के “नित्य-नियमपूर्वक-जप” का अर्थ प्रतिदिन १६ माला होता
है? अतः इस सन्दर्भ में हमारा निवेदन है की वे प्रामाणिक
जप-मंत्र ‘नित्यानन्द’ तथा ‘गौरांग’ का उल्लेख कर रहे हैं| इस तथ्य की पुष्टि श्रील भक्तिसिद्धांत तथा श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की उसी
श्लोक (चै॰च॰ १.८.३१) पर मूल व्याख्या देख कर की जा सकती है
जहाँ पर उन दोनों ने ‘नित्यानन्द’ तथा ‘गौरांग’ नामजप की
संस्तुति की है, किन्तु पञ्च-तत्व मंत्रको उद्धृत नहीं किया|
३
प्र॰ श्रील भक्तिविनोद तथा श्रील
भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद इत्यादि आचार्यगण ने यद्यपि स्वव्याख्यित ग्रन्थसमूह
(चै॰च॰ १.८.३१ आदि) में स्पष्टत: गौरांग मंत्रजप को संस्तुत किया है, तथापि किस कारण से इसे व्यावहारिक
रूप से स्थापित नहीं किया?
उ॰ ‘गौरांग’ जैसे गुप्त मंत्र व्यावहारिक रूप से धरातल पर उपयुक्त समय तथा परिस्थिति में श्रीनित्यानन्द बलराम की इच्छानुसार ही प्रकाशित होते हैं| अत: आचार्यगण इसकी व्याख्या करते हुए भी निताइ प्रभु की इच्छा को जान कर स्वेच्छा से उसका व्यावहारिक जप विनम्र अनुयायीगण के द्वारा भविष्य में करने के लिए छोड़ देते हैं|
किन्तु फिर भी आचार्यगण ने गौरांग मंत्रजप का स्पष्टत: उल्लेख किया है, क्योंकि उन्हें विदित है की जब उपयुक्त समय उपस्थित होगा, अर्थात् नित्यानन्द प्रभु की स्वेच्छा से भविष्यकालीन अनुयायीगण पूर्वाचार्यों द्वारा उपदिष्ट इन सार्वभौमिक शिक्षाओं के आधार पर ही गौरांग मंत्र के जप को व्यावहारिक रूप से नित्य-नियमपूर्वक संस्थापित कर देंगे| किन्तु इससे यह अनुयायीगण उन पूर्वाचार्यों से उच्च-स्तरीय नहीं हो जाते, क्योंकि अंतत: उन पूर्वाचार्यों की वाणी ने ही इन्हें प्रोत्साहित किया है| उपयुक्त काल तथा निताइ के आज्ञानुसार ही पूर्वाचार्य परोक्ष रुप से उपयुक्त समय पर उन अनुयायीगण में शक्ति-संचारित करते हैं, ताकि उनकी इन अस्थापित शिक्षाओं को स्थापित किया जा सके, उदाहरणत: गौरांग मंत्र जप।
इस का उदाहरण १८ अक्षर युक्त गोपाल-मंत्र है, जिसे बृहद्भागवतामृतम में वर्णित गोपकुमार ने, गोलोक-प्राप्ति के लिए, दीक्षा में प्राप्त करके जपमंत्र रूप में सेवन किया था| किन्तु यह मंत्र श्रील भक्तिविनोद अथवा श्रील गौरकिशोर ने दीक्षा-विधि के अंतर्गत मंत्ररूप में नहीं दिया, यद्यपि वे इस मंत्र के महातम्य से पूर्णत: परिचित थे| किन्तु बाद में श्रील भक्तिसिद्धांत ने अपने शिष्यगण को दीक्षा में इस जपमंत्र को प्रदान किया, ताकि महामंत्र जप में यह सहायरूप हो सके, क्योंकि आदिगुरु श्रीनिताइ के अनुसार वह उपयुक्त समय था|
गौरांग मंत्र स्वाविष्कृत जपमंत्र नहीं अथवा ‘निताई गौर राधे श्याम..’ की भाँती रसाभासयुक्त मनःकल्पित मंत्र नहीं है, अपितु यह जप के लिए शास्त्र सम्मत मंत्र है| कोई भी व्यक्ति न तो किसी भी नवीन मंत्र का आविष्कार कर सकता है, और न ही कोई हरेकृष्ण-महामंत्र जप का वर्जन, किसी दूसरे मंत्र का प्रतिस्थापन, या उसके जप-महातम्य को कम आँक सकता है| किन्तु आचार्यगण द्वारा सर्वभौमिक उपदेश, जैसे गौरांग मंत्रजप, को संस्थापित करने के लिए कोई भी व्यक्ति अन्य किसी को वर्जित भी नहीं कर सकता है। प्रत्येक जीव को भगवान् निताइ का प्रत्यक्ष आदेश (भज गौरांग, कह गौरांग, लह गौरांगेर नाम रे) का पालन और प्रचार करने का पूर्ण अधिकार है। इससे वे गौरांग नाम द्वारा अपराध रहित होकर शुद्ध हरेकृष्ण महामंत्र का जप तथा कीर्तन कर पाएंगे|
शास्त्रोक्त भजन-प्रणाली में नाना प्रकार का दिव्य भाव-वैचित्र्य गौड़ीय वैष्णव आचार्यगण में दृष्टिगोचर होता है। कई तो अधिक कृष्ण-भजनाकृष्ट होते हैं तथा कई अधिक गौरांग-भजनाकृष्ट होते हैं| दोनों ही समान रूप से दिव्य हैं| उदाहरणत: श्रील नरहरि सरकार ठाकुर एक गौरवादी थे, अत: स्वभावत: ही वे गौरांग के प्रति विशेष आकृष्ट थे: “गौर बालिया जाउक जीवने, किछु न चाहिबो आर”, अर्थात् – “जीवन के अंतिम श्वास के समय केवल गौरनाम ही निज मुखोच्चारित हो, यही मेरी एक मात्र चाह है|” अतः सभी आचार्यगण गौरांग मंत्रजप को संस्थापित करेंगे ही – यह आवश्यक नहीं है क्योंकि प्रत्येक आचार्य का अपना पृथक स्वरुपसिद्ध भाव होता है|
नवद्वीप धाम महातम्य में (न॰ध॰म॰
२.४९): “अतिशय गोपने राखिनु जेई नाम...”, “स्वयं भगवान् ने भी अपना रहस्यमय गौरांग नाम चिरकाल तक आच्छादित रखा...”,
अतः यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं है यदि कुछ आचार्यगण ने भी गौरांग
मंत्रजप विधि की स्थापना-योग्य समय तथा प्रभु की इच्छानुरूप प्रतीक्षा करना उचित
समझा|
४
प्र॰ गौरांग मंत्र जप से श्रीकृष्ण
की तथा हरेकृष्ण-महामंत्र जप से गौरांग की उपासना स्वत: हो जाती है, तो फिर पृथक रूप से गौरांग मंत्र जप
करने की क्या आवश्यकता है ?
उ॰ स्वरुपसिद्ध महापुरुष के लिए तो दोनों नाम ही एक सामान हैं| किन्तु साधकगण के लिए हरेकृष्ण-महामंत्र
जप में १० अपराधों का विचार अवश्यम्भावी हो पड़ता है, किन्तु ‘नित्यानन्द’ व ‘गौरांग’
मंत्रजप में इस प्रकार का कोई भी विचार नहीं है। यह चै॰च॰ १.८.३१
में दृष्ट है: “चैतन्य नित्यानन्दे नाहीं ए सब विचार,
नाम लइते प्रेम देन वहे अश्रुधार” – अर्थात्
“गौरांग तथा नित्यानन्द प्रभु १० नामापराध का विचार कभी नहीं
करते, अतः केवल उनके मात्र नाम लेने से ही जीव के नेत्रों से
विशुद्धप्रेम-पूरित अश्रुधार प्रवाहित होती है|”
श्रील भक्तिविनोद लिखते हैं: नामापराधम् सकलं
विनाश्य, चैतन्य नामाश्रित मानवानाम्, अर्थात् – “जीव के द्वारा संचित समस्त १० नामापराध
श्रीगौरांग का नाम-आश्रय लेने पर पूर्णत: विनष्ट हो जाते हैं|” श्रील भक्तिसिद्धांत चै॰च॰ १.८.३१ अनुभाष्य (बांगला) में लिखते हैं:
“कृष्णनाम अपराधेर विचार करेन, गौर-नित्यानन्देर
नामे ए विचार नाइ....अपराधी थाका-कालेउ गौर-नित्यानन्देर नाम ग्रहणकारी नाम
करिते-करिते मोचनान्ते नाम-फल लाभ करेन|” अर्थात् - “कृष्णनाम अपराध का विचार करता है, किन्तु नित्यानन्द
गौरांग नाम नहीं| अतः जब तक जीव में अपराध विद्यमान हों,
तब तक इन परमपरमार्थ-स्वरुप नामद्वय का जप एवं कीर्तन नित्य-नियमपूर्वक
करना कर्त्तव्य है| तब शनै:-शनै: अपराध विदूरित हो पड़ते हैं
तथा नामजप का फल – विशुद्ध-प्रेम प्रकट हो जाता है|”
५
प्र॰ किस कारण
से गौरांग के जपमंत्र से प्राय: गौड़ीय वैष्णवगण भी अपरिचित हैं ?
उ॰ जैव-धर्म के अध्याय १४ में
बाबाजी (बांगला में) कहते हैं: “जे तंत्र प्रकाश्य-अवतारगणेर मंत्र प्रकाशरूपे वर्णन करियाछेन,
सेइ तंत्रेइ छन्नावतारेर मंत्र छन्नरूपेन लिखिया राखियाछेन| यांहादेर बुद्धि कुटिल नय, तांहार बुझिया लइते पारेन|”
– अर्थात् – “वे शास्त्र जो सुप्रसिद्ध अवतार-समूह
के जपमंत्रों का खुले रूप से उद्घोष करते हैं, वे शास्त्र ही
छन्नावतार-रूप गौरांग के जपमंत्र को छन्नरूप से इंगित करते हैं, क्योंकि महाप्रभु स्वयं ही निज भगवत्ता को राधाप्रेम आस्वादन हेतु तब तक
अप्रकाशित रखना चाहते थे जब तक वे धरातल पर थे| किन्तु जिन
की बुद्धि कुटिल नहीं है, वे ही इन गुप्त मंत्रों को शास्त्र
में देख पाते हैं तथा गौरांग मंत्र जप कर सकते हैं|”
नवद्वीप शतक १७ में इसका एक अन्य कारण भी
वर्णित है: “चैतन्य-चरणांभोजे
यस्यास्ति प्रीतिरच्युत, वृन्दातविशयोस्तस्य
भक्तिस्याच्छतजन्मनि”, अर्थात् – “जिन्होंने
श्रीधाम वृन्दावन के एकमात्र नियंत्रक राधा-कृष्ण की एकनिष्ठिता भक्ति १००
जन्मों तक की है, उन्हें ही गौरांग-चरणों (तथा उनके
नामजप में) प्रीति एवं रुचि उत्पन्न होती है|”
६
प्र॰ क्या हरेकृष्ण-महामंत्र जप के
साथ गौरांग-मंत्र जप करने से गौरांग महाप्रभु रुष्ट हो जाते हैं?
उ॰ यदि ऐसा होता तो किस कारणवश
श्रील शिवानन्द सेन, नित्यानन्द
प्रभु, अद्वैत प्रभु, शुक,
सप्तर्षि, सार्वभौम, पार्वती
देवी, सुरभि गौ, इंद्र, मार्कंडेय ऋषि, नारद, सुवर्ण सेन,
रामानुजाचार्य, भीष्मदेव इत्यादि अनंतकोटी
भक्तसमूह, तथा स्वयं श्रीमती राधारानी तथा सत्यभामा आदि
(चैतन्य मंगल सूत्रखंड ५२७ – “हेम-गौर कलेवर,
मंत्र चारि-अक्षर) चार-अक्षरयुक्त
गौरांग-मंत्रजप के प्रति क्यों आकृष्ट होते? यद्यपि गौरांग महाप्रभु
ने यदा-कदा इस प्रकार जप करने को बाह्यरूप से वर्जित किया है, तथापि आतंरिकरूप से वे अतिप्रसन्न हुए जब श्रील श्रीवास ने गंभीरा में
उनके समक्ष यह तथ्य स्थापित किया की वह स्वयं भी ब्रह्माण्ड में अपने नाम-प्रचार
को रोक सकने में सामर्थ्यशाली नहीं हैं| नित्यानन्द प्रभु
तथा अद्वैत प्रभु इस गौरांग-मंत्र के मूल-प्रचारक हैं तथा श्रील शिवानन्द सेन गौरांग-मंत्राचार्य
हैं|
७
प्र॰ इन सब के अतिरिक्त और किस ने
गौरांग मंत्र जप किया है?
उ॰ स्वयं नित्यानन्द प्रभु
नवद्वीप धाम महातम्य ९.१० में कहते हैं: “किछु नाही खाय, निद्रा नहीं जाय, गौर-नाम करे जप”, अर्थात् “मध्यद्वीप स्थित सप्तर्षिगण आहार-निद्रा का सर्वथा परित्याग करके निरंतर गौरांग-नामजप
करते थे|” ब्रह्मा जी ने ही उन्हें गौरांग-मंत्र दीक्षा
प्रदान की थी| इसी प्रकार से देवी पार्वती भी शिवजी से
गौरांग-मंत्रदीक्षा प्राप्त करने के उपरान्त (न॰ध॰म॰ ६.४७ में) कहती हैं –
“एइ त जे शुनेछी मंत्र-तंत्र तत्काल, से सब
जानिनु मात्र जीवेर जंजाल”, अर्थात् –“इस
गौरांग मंत्र को प्राप्त करने के उपरान्त मुझे यही अनुभव हुआ है की अन्यान्य
मंत्र-तंत्र जो मैंने आज तक देखे-सुने थे, वे सब तो वास्तव
में जीव के लिए केवल जंजाल मात्र हैं|”
श्रीदेवकीनंदन दास कहते हैं की “भज गौरांग” गाने के उपरान्त श्री नित्यानन्द प्रभु ने यह गाया –“गौरांग भजिले, गौरांग जपिले, हय दु:खेर अवसान रे|” एक बार श्रील स्वामी प्रभुपाद के निजी सहायक श्री श्रुतकीर्ति दास ने U.K. में कहा था की महामंत्रजप के समय उन्होंने श्रील प्रभुपाद को “गौरांग, गौरांग, गौरांग....” इस प्रकार जप करते हुए कई बार सुना था|
८
शास्त्रोक्त नित्यानद-मंत्र जप सम्बंधित प्रमाण
“नित्यानन्द”
नाम ही पंचाक्षर युक्त निताइ-बलराम जप मंत्र (नि-त्य-आ-न-न्द) है,
जैसे की (चै॰च॰ १.८.२३ में) वर्णित है, “‘नित्यानन्द’
बलिते हय कृष्ण-प्रेमोदय, औलाय सकल अंग,
अश्रु-गंगा वय|” अर्थात् – “‘नित्यानन्द’ – इस प्रकार उच्चारण करने मात्र से ही
जीव के ह्रदय में श्रीकृष्ण के लिए शुद्धप्रेम उदय होता है तथा नेत्रों से अविरल
अश्रुधार प्रवाहित होती है|”
चै॰च॰ १.११.३३: “नवद्वीपे पुरुषोत्तम पंडित महाशय, नित्यानन्द-नामे याँर महोन्माद हय”, अर्थात् -“श्रील पुरुषोत्तम पंडित (कृष्णलीला में स्तोक-कृष्ण सखा) नवद्वीप में निवास करते थे तथा ‘नित्यानन्द’ नामजप करने पर वे प्राय: महा-उन्मत्त हो जाते थे|”
चै॰च॰ १.११.३४: “बलराम दास कृष्ण-प्रेम-रसास्वादी, नित्यानन्द-नामे हय परम उन्मादी”, अर्थात् –“बलराम दास पूर्णरूपेण कृष्ण के प्रेमसुधारस का आस्वादन करते थे| ‘नित्यानन्द’ नाम का जप करने पर वे पूर्णतः उन्मत्त तथा कृष्णप्रेम के वशीभूत हो जाते थे|”
चै॰भ॰ १.९.३८५: “’नित्यानन्द’ हेन भक्त शुनिले श्रवणे, अवश्य पाइबे कृष्णचन्द्र सेइ जने”, अर्थात् श्रील माधवेन्द्र पुरीपाद कहते हैं- “जो एक बार भी ‘नित्यानन्द’ नाम को श्रवण कर लेते हैं, वे अवश्य ही कृष्ण को प्राप्त करते हैं|” चै॰म॰ मध्य - “जो कोई भी मात्र एक बार ही ‘नित्यानन्द’ नाम का उच्चारण करता है, वह अवश्य ही मेरी शुद्धभक्ति को प्राप्त कर लेता है|”
चै॰भ॰ २.३.१३४: “’नित्यानन्द’ नाम
श्रवण करने मात्र से ही संसार के जीवों में पवित्रता उदित होगी तथा सभी जन
ब्रह्मज्ञ एवं भगवत-भक्त बन जायेंगे|”
न॰ध॰म॰ १.५१: “कलि-जीवेर अपराध असंख्य-दुर्वार,
गौर नाम बिना तार नाहिक उद्धार”, अर्थात् –
“ कलिग्रस्त जीवों के अपराध असंख्य एवं दुर्जेय हैं, अतः गौरांग-नाम के अतिरिक्त उनका कभी भी उद्धार नहीं हो सकता है|”
न॰ध॰म॰ १.४८: “निताइ-चैतन्य बलि जेइ जीव डाके,
सुविमल कृष्णप्रेम अन्वेषये ताके|” अर्थात्-
“ जो लोग नित्यानन्द व गौरांग नाम उच्चारण करते हैं, उनको स्वयं श्रीकृष्ण का सुविमल-प्रेम ढूंढकर कृतार्थ कर देता है|”
नाम-भजन श्रेणी
|
प्रतिदिन का
नित्यानन्द-गौरांग-हरेकृष्ण महामंत्र माला जप-संख्या:
|
नित्यानन्द-गौरांग दीक्षा
|
१६-१६-४
|
हरिनाम दीक्षा
|
१६-१६-१६
|
गायत्री दीक्षा
|
६४-६४-१६
|
लक्षेश्वर दीक्षा
|
६४-६४-६४
|