प्रारब्ध तथा अणु-स्वतंत्रता
प्रश्न : बुद्धि में उद्भूत होने वाले विचार, कर्मेन्द्रियों द्वारा संपादित
क्रिया अथवा हृदय में उत्पन्न इच्छा – यह सभी ही वस्तुतः जीव के पूर्व संस्कारों
द्वारा प्रभावित होते हैं, किन्तु यह भी कहा जाता हैं की सर्वतंत्र-स्वतन्त्र
वस्तु भगवान् से पृथक अण्वांश होने के कारण प्रत्येक जीव के पास अणु-स्वतंत्रता
विद्यमान है – इन दोनों परस्पर विरोधात्मक विचारों का सामंजस्य किस प्रकार संभव है
?
उत्तर:
हां, यद्यपि यह सही है की जो कुछ भी कर्म जीव के द्वारा संपादित अथवा विचारित होता
है, वह उस जीव के पूर्वसंचित कर्म-समूह से ही प्रभावित होता है| किन्तु यह भी सत्य
है की भगवान् गौरांग-कृष्ण ने प्रत्येक जीव को अणु-स्वतंत्रता प्रदान की है|
प्रत्येक जीव इस अणु-स्वतंत्रता का सदुपयोग कर के, अर्थात भक्ति योग से युक्त हो
कर कूट, बीज, प्रारब्ध (वे कर्मफल जो फल प्रदान करने के लिए तत्पर हैं) , तथा
अप्रारब्ध कर्म इत्यादि को भी समूल भस्मीभूत कर सकता है| अत: जीव अपने प्रारब्ध को
भक्ति के प्रभाव से बदल सकता है – तथा इस भक्ति का मुख्यांग है – नित्यानंद,
गौरांग तथा हरे कृष्ण महामंत्र का सदैव जप तथा कीर्तन करना|
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